झील में उतरती ठंड


 वह एक सर्द सुबह थी। हालाँकि सुबह की नियमित सैर करने वाले लोग अब वहाँ गिनती भर के थे पर फिर भी शाल में लिपटी किसी आकर्षक  रमणी की भाँति वह एक खिली हुई  सुबह थी। सर्दी की सुबह का यौवन अन्य मौसमों की तुलना में कुछ अधिक देर तक बरकरार रहता है। पूरब में शिवालिक की पहाडि़यों की ओट से अंगडाई लेता सूरज का लाल गोला अब बहुत ऊपर चढ़ आया था और उसके प्रकाश में  चटख आ गई  थी। नरम-नरम उष्ण किरणें दुबली काया वालों और बुजुर्गो के सिर और चेहरों से उतरकर धमनियों में समाने लगी थीं। सूरज के निकलने के पहले जब झुटपुटा होता है, अँधेरे की झीनी चादर लपेटे इस भीषण  ठण्ड में उस समय वही लोग इस झील पर आते हैं जिनकी देह में बिना सूरज की मदद के खून को गर्म रखने लायक ऊर्जा विद्यमान रहती है। बीमार, बुजुर्ग और मुझ जैसे दुबले-पतले शरीर वालों के लिए सुबह का यही आठ-नौ बजे के आस-पास का गुनगुना समय ही मुफीद रहता है।
फोटो-दीपक अरोड़ा 

पिछले महीने से ही मैंने झील पर सुबह की सैर के टाइम-टेबल में परिवर्तन किया था। उतरती हुई ठण्ड का अहसास उन दिनों से विशेष रूप में होने लगा था जब यहाँ बत्तखों और आवारा कुत्तों को नियमित रूप से चारा डालने वाले बुजुर्ग ने भी अपना समय बदल लिया था। अब वे सुबह छ: बजे के वजाय सात बजे के बाद झील पर आने लगे थे। घाट की तरह बनी सीढि़यों पर बत्तखों का झुण्ड भी तेज स्वरों में कूँजन करता उनके आने की गवाही देता।

पिछले पन्द्रह दिनों से अब मेरी मुलाकात सीढि़यों पर आए बत्तखों के झुण्ड से नहीं होती और वे मुझे छोटे-छोटे समूहों में दूर-दूर तक झील में विचरती नज़र आतीं क्योंकि आठ बजे के बाद ही मैं झील पर आकर तेज चलने और हल्के-हल्के कदमों से दौड़ने की कवायद करता।

उस सर्दी की सुबह भी जब मैं झील पर बनी पगडंडियों पर पूरब की ओर लगभग दो किलोमीटर की मार्निन्ग-वाक के बाद लौटा तो अपनी निश्चित और सबसे प्रिय लोहे की एंटिक बेंच पर एक बुजुर्ग को बैठे पाया। मैं हर रोज अपनी हल्की-फुल्की एक्सरसाइज़ के बाद थोड़ी ऊर्जा समेटने और चढ़ते सूरज की तपन को पूरी तरह आत्मसात करने के लिए इसी बेंच पर आकर बैठता हूँ। उस दिन जब उस बुजुर्ग को बैठे देखा तो बड़ा अनचाहा और अटपटा-सा लगा। कुछ-कुछ ऐसा अहसास हुआ जैसे मेरी प्रापर्टी पर किसी ने जबरन कब्जा कर लिया हो। वैसे बेंच खासी लम्बी है और आसानी से इस पर कम-से-कम चार जन बैठ सकते हैं।
उस पर बुजुर्ग तो शालीनता से एक किनारे पर ही बैठे थे। फिर भी न जाने क्यों मैं वहाँ एक अपरिचित के पास बैठने की हिम्मत नहीं जुटा पाया और उन बुजुर्ग के शरीर का जायजा लेते हुए उनसे हटकर सामने झील के किनारे-किनारे बने पथरीले तटबंध पर बैठ गया। बुजुर्ग पूर्णत: अवकाशप्राप्त लग रहे थे क्योंकि समय के साथ जददोजहद करने वाले कोई  चिह्न  उनमें दिखाई नहीं दे रहे थे। उनकी आँखें आने-जाने वाले लोगों को सहलाती-सी दिख रही थीं। मैंने मन-ही-मन सोचा, क्या उम्र में ऐसा पड़ाव भी आता है जब मन में न कोई  उथल-पुथल रहती है और न कोई  लहर उठती है तथा मनुष्य एक शिशु  की तरह प्रकृति के क्रियाकलापों को देखकर मुग्ध होता रहता है। हाँ, एक अन्तर तो होता ही होगा जिसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता। बच्चों में जहाँ नई-नई वस्तुओं को देखकर कुछ समझने, सीखने और जानने की सहज इच्छा पैदा होती है, बुजुर्गों में ऐसा कुछ नहीं होता होगा। उनके अनुभवों ने सब कुछ जाना, माना, समझा और भोगा होता है। उनके लिए समय को सहज बिताना ही बहुत बड़ी उपलब्धि होती है।
फोटो- दीपक अरोड़ा

मेरे मस्तिष्क में  ये सारे ख्याल उसे बुजुर्ग को देखकर झील के ऊपर उड़ते कबूतरों की तरह यों ही फड़फड़ाने लगे थे। उस नई जवानी नयी नौकरी की उम्र में मन को विचारों से रिक्त कर ध्यान में बैठना या फिर यों ही ईश्वर  की सृजन-कृति के देखने को प्रयास भी करता हूँ तो किसी न किसी बहाने मन भटक ही जाता है। अब देखो न अच्छा-भला अपनी सुबह की स्वास्थ्यवर्धिनी दिनचर्या में व्यस्त था कि बुजुर्ग को लेकर मन के ताने-बाने में उलझ गया। बुजुर्ग का इस तरह बेफिक्र अंदाज में बैठना मुझे बिन लहर के शान्त झील-सा लगा और एक सुकुन का अनुभव हुआ। मैंने मन-ही-मन उनके भाग्य को सराहा। मेरी आँखें उन पर ही टिकी हुई हैं, इसका अहसास मुझे तब हुआ जब बुजुर्ग आते-जाते लोगों से निगाहें हटाकर मुझे बार-बार देखने लगे थे। वे कुरते-पायजामे के साथ एक गर्म जर्सी में थे और स्वास्थ्य गवाही दे रहा था कि उनमें अब भी युवाओं जैसे फुर्ती और बल है। जब मुझे लगा कि मैं उन्हें घूरे जा रहा हूँ और वे भी इस पर गौर कर रहे हैं  तो मैं झेंपता हुआ उठा और दोनों बाँहें आगे-पीछे हवा में चक्राकार घुमाता हुआ अपनी देह को दायें-बायें मोड़ने का उपक्रम कर व्यायाम की कवायद करने लगा। फिर धीरे-धीरे आगे बढ़कर गोल्फ-क्लब की ओर सीढि़याँ उतर गया। यह क्रम लगभग सप्ताह भर चलता रहा। प्रतिदिन इसी समय मैं गोल्फ-क्लब की दूसरी तरफ सूनी-सी जगह पर साइकिल खड़ी कर झील पर नियमित तेज गति की टहल और जागिंग सम्पन्न कर अपनी हरे रंग से रंगी बेंच तक पहुँचता तो उन बुजुर्ग को यथावत वहीं पाता ---- सर्द और निस्संग। मुझे आशा थी कि दो-चार दिनों में वे उस बेंच पर अपना अधिकार छोड़ देंगे, पर ऐसा नहीं हुआ। इसके विपरित एक दिन मैंने अचकचा कर उन्हें नमस्कार बुला दिया। स्वाभाविक भी था। इस हफ्ते भर में हमदोंनों में अचानक एक अपरिचित परिचय जो हो गया था। हुआ यों कि उस दिन जागिंग करता हुआ मैं आया और अपनी हाँफ संभालता बुजुर्ग के बगल में बैठ गया।
''नमस्कार, सर....।
उनके चेहरे की झुर्रियाँ मुस्कुरा उठीं, ''लगता है आज बहुत दूर से दौड़ते हुए आए हो।
मैंने पहली बार उन्हें बोलते सुना। मुझे न सिर्फ उनकी आवाज आकर्षक  और बुलंद लगी बलिक ऐसा जान पड़ा जैसे कोई  मूरत अचानक बोल उठी हो।
बिना कुछ कहे मैंने मुस्कुराकर स्वीकृति दी। क्षण भर के लिए मुझे अपने बेटे का ख्याल हो आया कि कब वह छुटपन में पहली बार बिल्कुल स्पष्ट बोला होगा, हालाँकि मुझे पता है कि इस प्रश्न  का उत्तर पाना कितना कठिन है।
मैंने साँसों को नियंत्रित करते हुए उनसे कहा, ''मैं सप्ताह भर से आपको इस बेंच पर इसी समय बैठे देख रहा हूँ। इसके पहले कभी देखा नहीं। क्या आप कहीं बाहर से आए हैं ?
वे मुस्कुराए, ''नहीं-नहीं ऐसी बात नहीं है। मैं इसी शहर का रहने वाला हूँ और सेक्टर आठ में गुरूद्वारे के बगल से गुजरती सड़क पर अपनी रिहायिश  है। मैं वर्षों से इस झील पर नियमित रूप से आ रहा हूँ। हाँ, वक्त मैंने बदल लिया है और यह भी कि मैं तकरीबन तीने महीने के अंतराल पर इन दिनों झील पर आने लगा हूँ।"
"पर कभी देखा नहीं ?"
''तुम क्या हर रोज झील पर आते हो ?"
''हाँ, अगर इस  शहर में होता हूँ तो ....। मेरी साँस धीरे-धीरे सामान्य होती चली गई |  मैं एक मेडिकल रैप हूँ और महीने में दस-पन्द्रह दिन मुझे शहर से बाहर रहना पड़ता है।"
''क्या तुम्हारा परिवार तुम्हारे साथ है ?"
''हाँ, पत्नी और एक छ: साल का बेटा है। मेरी ससुराल भी इसी शहर में है। जब मैं टुअर पर होता हूँ तो वे वहाँ चले जाते हैं। वैसे इस शहर के समीप मुबारकपुर के पास पंडवाला में मेरा गाँव है। दो बड़े भाई  परिवार सहित वहाँ रहते हैं। पिताजी भी उनके साथ हैं।
अपने बारे में संक्षिप्त-सी जानकारी देने के बाद मैंने उनसे पूछा, ''आपकी कोठी में कौन-कौन हैं? उन्होंने अपनी रिहायिश  की जो लोकैलिटी बतायी, वहाँ आलीशान कोठियाँ ही हैं।
उन्होने व्यंग्य से भरा ठहाका लगाया, ''मेरी काहे की कोठी। अब तो दोनों लड़कों के नाम है। बनाया तो मैंने था पर बहुओं ने आकर सलाह दी कि अब मुझे इस कोठी के दो हिस्से कर देने चाहिए। ऊपर वाला छोटे के नाम और नीचे का पोर्शन बड़े के लिए। इसमें बेटों की भी सहमति थी। पत्नी के गुजर जाने के बाद मुझे भी ऐसा ही उचित जान पड़ा। जिंदगी  का क्या भरोसा ? मरने के बाद बेटे आपस में लड़ें और मेरी आत्मा को कोसें तो इससे बेहतर यही है कि जीते जी उनकी इच्छा के अनुसार मकान का बँटवारा कर दिया जाय। वैसे भी उम्र की ढलान पर मोह-माया से रिश्ता  टूटता चला जाय तो अच्छा रहता है। मरते वक्त चैन की नींद आती है।
''आपके बेटे कुछ तो करते होंगे  ?"
''हाँ हाँ क्यों नहीं। एक का अच्छा-खासा बिजनेस है और दूसरा एक मल्टीनेश्नल कम्पनी में बतौर मेकेनिकल इंजीनियर कार्यरत है। साथ ही रहते हैं, पर उनके पास फुर्सत कहाँ है ? बड़े घर के बेटे-बहुओं की व्यस्तता। तुम आधुनिक शहर से बावास्ता हो, सो तुम्हें सब पता ही होगा।
''सिर्फ बड़े घरों की बात नहीं है सर। यह तो आम हो गया है।....क्या आप भी व्यवसाय में थे ?
''अरे नहीं भाई । मैं तो फौज का एक रिटायर्ड कर्नल हूँ। भले जमाने में प्लाट लिया था, काम आ गई | कई  लड़ाइयाँ लड़ी हैं मैंने। विश्वयुद्ध  में भी शामिल रहा।
''इस उम्र में भी आपका स्वास्थ्य इस बात की गवाही दे रहा है।
''हाँ, बुढ़ापे की एक दो अनचाही बीमारियाँ लग गई हैं, वरना फिट ही हूँ।.... इससे भी अधिक फिट था छ: महीने पहले। मैंने तुम्हें बताया न कि मैं वर्षों से इस झील पर आ रहा हूँ। दरअसल छ: महीने पहले तक मैं अपने दोस्त बृजलाल के साथ सुबह साढ़े चार-पाँच बजे यहाँ सैर के लिए आया करता था। हमारी कोठी के सामने वाली 'रो' में दो-तीन घर छोड़कर उसकी भी कोठी थी पर उसका फौज से दूर का भी कोई  लेना-देना नहीं था। हाईकोर्ट में वकालत करता था वह। पत्नी उसकी भी नहीं रही थी। समय बिताने के लिए उसके पास वकालत का एक बहाना था, पर मेरे पास वह भी नहीं। किताबें वगैरह पढ़ने का शौक  है, पर सारा दिन भी कितना पढ़ा जाय। बृजलाल उम्र में मुझसे आठ-दस साल छोटा ही होगा। हम दोनों में अच्छी पटती थी। दोनों ही को न तो पार्टी-वार्टी का शौक  था और न किसी गोल्फ-क्लब, नाइट-क्लब में जाने का चस्का। सुबह सैर के लिए झील पर इकटठे आते थे और इस वक्त तक लौट जाते थे, इसलिए तुमने हमें कभी देखा नहीं। शाम को भी अक्सर मैं और बृजलाल एक साथ मजे से वक्त गुजार लेते थे लेकिन छ: महीने पहले वह कमबख्त मेरा साथ छोड़ गया। दिल का पहला दौरा क्या पड़ा, आखिरी साबित हुआ। उसके बाद कुछ दिन तक मैं पहले की तरह अलस्सुबह झील पर आने की कोशिश  करता रहा पर बीच राह से ही लौट जाता। झील तक आना मुझे भारी पड़ने लगा। अत: घर से सैर के लिए निकलता तो सही पर यहाँ तक पहुँच नहीं पाता। कुछ महीने यों ही अनियमित-सा सड़कों पर ही सुबह की आवारागर्द सैर से ही काम चलाने लगा। फिर महीने भर घुटनों के दर्द से परेशान रहा। अब अच्छा-खासा दिन निकलने के बाद घर से चलकर धीरे-धीरे यहाँ आता हूँ और घंटे-दो घंटे बैठकर लौटता हूँ। घर पर खाना-पीना, टी.वी. पर प्रोग्राम देखना, थोड़ा-बहुत पढ़ लेना और लेटे रहना --- अब बस यही रोज की दिनचर्या है। आज की भागती-दौड़ती दुनिया में लोगों के पास फुर्सत में बैठकर बात करने का समय नहीं रहा और मुझ जैसे बूढ़ों से बात करना ही कौन चाहेगा। उनकी रफ्तार तेज, हमारी धीमी। हमारी पुरानी बातें, उनकी नई । आज छ: महीने के बाद तुमसे खुलकर बातें कर रहा हूँ, बड़ा अच्छा लग रहा है। अपने होने का कुछ अहसास जागा।
फिर अचानक रुककर उन्होंने मेरी आँखों में झाँकते हुए पूछा, ''तुम मेरी बातों से बोर तो नहीं हो रहे?
''नहीं सर, मैं तो आपकी बातों में खो-सा गया था। आपसे बहुत कुछ सुनना चाहूँगा। आपकी फौजी जिंदगी के बारे में, आपके संघर्ष  और इस शहर के बसने के बारे में ढेर सारी बातें पर आज नहीं। अब तो आपसे हर रोज मुलाकात होती रहेगी। जागिंग के बाद आपकी अनुभवी बातें..... कल से यही रूटीन रहेगा मेरा।
उनके चेहरे पर संतोष  और खुशी के मिलेजुले भाव उभरे । जैसे किसी बच्चे ने शान्त झील से खेलना शुरू  कर दिया हो। मैंने अपन दायाँ हाथ उनकी ओर बढ़ाया---
''अच्छा सर, अब मैं चलता हूँ, कल आपसे यहीं मिलता हूँ। इस महीने मेरा कहीं बाहर टुअर भी नहीं है। मैंने उन्हें और अधिक आश्वस्त किया और उनकी हथेली की उष्णता को अपनी मुटठी में समेटे वहाँ से रूखसत हुआ।
अगले दिन जागिंग के बाद जब मैं हाँफता हुआ उस बेंच तक आया तो मुझे बेहद आश्चर्य हुआ। बेंच खाली पड़ी थी। मैंने इधर-उधर देखा। फिर दूर तक झील पर आती सैर की सड़क पर निगाह डाली। सफेद कुरते-पायजामे में कोई भी बुजुर्ग मुझे आते नहीं दिखे। आँखों में समाया तो पीपल का छितराया हुआ पेड़, पीपल के बगल में झील और झील में दूर देश से आए मेहमान पक्षी। मैं उस बेंच पर अकेला घंटे भर बैठा रहा पर उस दिन कर्नल साहब नहीं आए।
उस दिन के बाद अगले तीन दिनों तक भी वे झील पर नहीं आए। मुझे झील के कैनवास पर कोई  रंग लुप्त-सा लगा। तरह-तरह के कयास लगाता रहा। कहीं शहर से बाहर न गए हों, क्या पता बीमार ही पड़ गए हों। झील पर आकर उन्हें न पाने के बाद मन अशांत  हो उठता। उनकी आँखों का सम्मोहन मुझे ऐसा अहसास कराता जैसे कुछ पाने से मैं वंचित रह गया हूँ। चौथे दिन मुझसे रहा नहीं गया और दस बजे के करीब जब मैं अपने दफ्तर के लिए स्कूटर पर निकला तो हमेशा  की तरह मध्यमार्ग पर आने के वजाय सैक्टर आठ वाली सड़क पकड़ी। यहीं गुरूद्वारे के समीप ही कहीं बुजुर्ग ने अपना निवास बताया था। गुरूद्वारे के बगल में एक मंदिर है और मंदिर के बाहर एक फूलों वाला बैठता है। मैंने स्कूटर रोककर उससे पूछा, ''यहाँ आस-पास एक कर्नल साहब रहते हैं, तुम जानते हो क्या ?
''हाँ, इस इलाके में एक ही तो कर्नल साब थे। तीन दिन पहले ही तो दोपहर की नींद से वे नहीं उठे।
''क्या...? मेरे होंठ खुले के खुले रह गए।
''हाँ साब, उस दिन वे बड़े खुश थे। मुझसे बातचीत भी की थी। हालचाल पूछा था। कर्इ महीनों बाद दिखाई  दिए थे। पहले वकील बाबू के साथ सुबह सैर से लौटकर अक्सर हमारे यहाँ आते थे। वकील बाबू पूजा के लिए हमसे फूल खरीदते थे। दोनों बड़े खुशमिजाज थे। वकील बाबू के गुजर जाने बाद कर्नल साहब उस दिन से पहले कभी दिखे नहीं थे और शाम को सुना कि.............।

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